Wednesday 3 April 2013

ढलती उमर सब सिखा जा रही है ....

जिंदगी भी सियासत किये जा रही है ..
कर के झूठे बहाने वफ़ा जा रही है ..

जहाँ बैठे थे बूंदों के प्यासे कभी से ...
वहीँ से ये बारिश मुह छुपा जा रही है ..

जो नुस्खे थे सीखे मनाने के हमने ..
उन्ही से वो हो के खफ़ा जा रही है ....

रखूं क्या हिफाजत से तुम ही बताओ ...
ज़िन्दगी जब ये साँसे लुटा जा रही है ...

अब कौन सा मर्ज़ मेरा करोगे ..
लुट कर दिल मेरा बेवफा जा रही है ...

"मुसाहिब" यहाँ पर कहाँ कोई अपना ...
ये ढलती उमर सब सिखा जा रही है ....

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