Wednesday 30 October 2013

जन्नत सी हँसी मेरी ये कायनात होनी है ...

मुद्दत बाद दिल के  मुज़रिम से बात होनी है ...
आँखों से  वही रिमझिम सी बरसात होनी है ...

तजुर्बेकार कहते हैं एक नयी शुरुआत होनी है ...
मेरे हिस्से में हैं शिकवे मेरी फिर मात होनी है ...

मेरी पलकें करो अब नींद से तौबा सारी रात ...
उनके जलवों के चर्चे तो सारी  रात  होनी है ...

गुज़ारिश है नज़रों से उसे बस कैद कर लेना ...
न जाने फिर कहाँ कैसे ये हँसी मुलाक़ात होनी है ...

करेगी ये ज़मीं बोसा उनके पाक क़दमों का ...
जन्नत सी हँसी मेरी ये कायनात होनी है ...

कोई शेख हो दुनिया का या हो वो "मुसाहिब" ..
अंज़ाम ऐ ज़िन्दगी में सबकी वफात होनी है ...

जलने से जादा जलाती है मोहब्बत ...

ये कहने कि बातें है याद आयेंगे आप ...
ये लम्हा गुजरते ही भूल जायेंगे आप ...

अब बस भी करो यूँ नज़रों से खेलना ..
शायर और कितनो को बनायेंगे आप ...

जलने से जादा जलाती है मोहब्बत ...
ये बात किस किस को बतायेंगे आप ...

आप हो तो ग़ज़ल खुद लबों पर चले आते ...
हो के दूर हमसे कितना रुलायेंगे आप ...

नया है ज़माना दिल भी बदल गए हैं यहाँ ...
पुराने दिल कहानी कब तक सुनायेंगे आप ...

जिस दिन "मुसाहिब" ने मुकम्मल ग़ज़ल लिख दी ...
हो के बेचैन बहुत मुझतक चले आयेंगे आप ...

कह दो आज जो भी है तुम्हारे दिल में ...

कह दो आज जो भी है तुम्हारे दिल में ...
ये छोटी सी जो बात है तुम्हारे दिल में ....

कह दो की कितनी मोहब्बत है तुम्हे ...
कह दो की हम रहते हैं तुम्हारे दिल में ...

कह दो की तेरे दिल का हर साज़ हु मैं ...
गा दो जो भी अफ़साने हैं तुम्हारे दिल में ...

वो एक बार का मिलना ख्वाबों में कभी ...
और कैद हो जाना  मेरा तुम्हारे दिल में ...

न छिपा जो कुछ भी है तेरे दिल में "मुसाहिब"...
अब मुझे सब है पता क्या है तुम्हारे दिल में ...

ऐसे हालत को बयाँ करने लिखते हैं ग़ज़ल ...

हाल- ऐ - दिल पे ही शायर बुनते है ग़ज़ल ...
जो बात दिल की समझते हैं सुनते है ग़ज़ल ....

लिख दे जो मचलकर दास्ताँ-ऐ-दिल कोई ...
कहने वाले इसे ही कहते हैं ग़ज़ल ...

दर्द जब अश्कों से बयां होने न लगे ...
ऐसे हालत को बयाँ करने लिखते हैं ग़ज़ल ...

क्या करना किसी बदगुमाँ दिल पे मर कर ...
अब मरते नहीं किसी पे ,  जीते हैं ग़ज़ल ...

कोई भी नशां रहता ही नहीं दो पल भी ...
अब तो "दीवान-ऐ-मुसाहिब" से पीते हैं ग़ज़ल ...

मुशायरा "मुसाहिब" के बिना वीरां सा लगा ...

जबसे वो मुझ पे मेहरबां सा लगा ...
ज़माने को मैं कितना बदगुमां सा लगा ....

वो समझता था ग़ज़ल अलफ़ाज़ है नाहक ...
हिकायतें अपनी जो उसने देखी हैरां सा लगा ...

गौर से सुनना तजुर्बे की बातें जो कहें  ...
उनका हर लफ्ज़ मुझे दबिस्ताँ सा लगा ...

सुनी जितनी भी मोहब्बत पे ग़ज़ल हमने ...
तेरे मेरे ही दिल ऒ दास्ताँ सा लगा ...

जख्म जो भी लगे उनकी नज़रों से कातिल ...
दर्द छोडो   मुझे तो अरगुमां सा लगा ...

न वो आया न आँखों में नमीं आयी ...
मुशायरा "मुसाहिब" के बिना वीरां सा लगा ...

सब के घायल है मिले जिस तरफ देखा उसने ...

जब से दीवाने को हद से गुजरते देखा उसने ...
न जाने क्यूँ कर लिया है वस्ल से तौबा उसने ...

निकल आये जो परदे से हुआ हंगामा ऐसा ...
सब के घायल है मिले जिस तरफ देखा उसने ...

ताजमहल पे नज़र अब टिकती ही नहीं ...
जबसे तौफिक ऐ नज़र से मेरी तरफ देखा उसने ...

उसके आने से खिल उठता है गुंचा सारा ...
यूँ कायनात बदलना जाने कहाँ से सीखा उसने ...

संगमरमर की मूरत पे मोहब्बत की सजावट ...
पाया है खुदा से तहारत का इजाफा उसने ...

परेशां है "मुसाहिब" वो आयेंगे तो बैठेंगे कहाँ ...
सजा दिया उनकी तस्वीर से गोशा गोशा हमने ...

दिल लगाने का यहाँ इब्राम न कर ...

बेरुखी का गैरों पे इलज़ाम न कर ...
दिल लगाया है तो अब आराम न कर ..

लादवा है ये दर्द-ऐ-बेखुदी यारब ...
इसे दिल से न लगा एहतराम न कर ...

गर मय में कतरा अश्क का हो ...
वो मय न उठा फिर जाम न भर ..

बेमेहर मौसम तोड़ देता है आशियाँ ...
अब घर न बना मकाम न कर ..

एक पल भी हो तू मुझसे जुदा ...
मेरे गम तू ऐसा काम न कर ...

ये इल्जाम तो खुशियों पे है लगा ...
ऐ गम तू खुद को बदनाम न कर ...

बदनाम है तू उसको तो न कर ...
चल घर अब यहाँ पर शाम न कर ...

हाँ लुट तो गया इस खेल में तू ...
पर तौहीन-ऐ-मोहब्बत आम न कर ...

"मुसाहिब" जमाना सनमपरस्तों का न रहा ...
दिल लगाने का यहाँ इब्राम न कर ...

Friday 18 October 2013

या यूँ कहो की दीवान-ऐ-मुसाहिब है तू .

न हो तमसील जिसकी वो नाहिद है तू ..
या यूँ कहो की मशीयत का वाजिद है तू ...

खता जितनी भी है हजीमत मेरी ..
या यूँ कहो की हर बात पे वाजिब है तू ...

हो ही जाती है पैकार ऐ मोहब्बत बेजा ..
या यूँ कहो की इस इल्म में माहिर है तू ...

बेनजीर है ज़माने में हसरत तेरी ..
या यूँ कहो की इस बात से नावाकिफ है तू ...

तेरी हर एक अदा ग़ज़ल है मेरी ...
या यूँ कहो की दीवान-ऐ-मुसाहिब है तू .

तमसील - Example , नाहिद - Beauty, मशीयत - God's Will , हजीमत  - Defeat, पैकार - war, बेनजीर - matchless , दीवान - collection of Ghazals

Thursday 3 October 2013

हो चुके है हम भी छुपाने में मुसीबतें माहिर ...

बिसात ऐ जिंदगी पे कज़ा की हरकतें काफ़िर ...
हो  चुके है हम भी छुपाने में  मुसीबतें माहिर ...

एक रोज़ जो बताया दिल दुखता है फिराक से ..
अब आजमाता  है मुझपे ही हिमाकतें शातिर ...

आता है जमीं पर फिर वो कातिब -ऐ -तकदीर ...
करता है गर अता दिल से कोई इबादतें ताहिर ...

वो ज़माना क्या गया जज्बा ऐ दिल  बदल गए ..
पाता है बेसबब अब अपनों से ही नफरतें साहिर ..

क्या पूछते हो की हिज्र में कैसा है ये "मुसाहिब"...
हाल ऐ दिल की तो तुमपर सब नज़ाकतें जाहिर..


कज़ा -Death , फिराक -Separation , कातिब -ऐ -तकदीर  - Almighty, ताहिर -Pure , साहिर - Friend,  हिज्र  -Separation