Wednesday 30 October 2013

ऐसे हालत को बयाँ करने लिखते हैं ग़ज़ल ...

हाल- ऐ - दिल पे ही शायर बुनते है ग़ज़ल ...
जो बात दिल की समझते हैं सुनते है ग़ज़ल ....

लिख दे जो मचलकर दास्ताँ-ऐ-दिल कोई ...
कहने वाले इसे ही कहते हैं ग़ज़ल ...

दर्द जब अश्कों से बयां होने न लगे ...
ऐसे हालत को बयाँ करने लिखते हैं ग़ज़ल ...

क्या करना किसी बदगुमाँ दिल पे मर कर ...
अब मरते नहीं किसी पे ,  जीते हैं ग़ज़ल ...

कोई भी नशां रहता ही नहीं दो पल भी ...
अब तो "दीवान-ऐ-मुसाहिब" से पीते हैं ग़ज़ल ...

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