Thursday 25 April 2013

सौ बार सोचना पड़ता है ..

अब बाज़ार से खाली हाथ लौटना पड़ता है ..
घर आने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है ..

प्यार कितना भी कर लूँ वो पराया ही तो है ..
जो अपनों ने किया सौ बार सोचना पड़ता है ..

उस नशे में मैं कहीं भूल न ज़ाऊ तुझको ..
मुझे पीने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है ..

लौट पाउंगा सलामत शाम तक मैं घर  ..
घर से जाते हुए सौ बार सोचना पड़ता है ..

जाने कौन कब मांग ले हर लम्हे का हिसाब ..
सांस लेने में भी सौ बार सोचना पड़ता है ..

सर से पांव तक क़र्ज़ में डूबा है "मुसाहिब"..
मरने में भी अब सौ बार सोचना पड़ता है ..

नयी ग़ज़ल आने वाली है ..

जो काफिरों की फिर नयी नसल आने वाली है ..
मुजाहिदों पे भी खुदा की नयी फज़ल आने वाली है ..

यहाँ तुम बैठे रहे इंतज़ार में यूँ ही बेवजह ..
वहां उनके खेतों में नयी फसल आने वाली है ..

आज शाहों को देखा है गरीबों के घर में खाते  ..
लगता है चुनावों की नयी पहल आने वाली है ..

यूँ ही नहीं कोई खून को पसीने में बहा रहा ..
लगता है अमीरों की नयी महल आने वाली है ..

आज दिखा है जी भर के रोते हुए "मुसाहिब"..
दर्द -ऐ-ज़िन्दगी पे नयी ग़ज़ल आने वाली है .. 

Tuesday 23 April 2013

कुछ हसरतें बची हुई है ..

अभी ज़िन्दगी की कुछ नुमाएशें बची हुई हैं ..
अभी लौट आने की कुछ उम्मीदें बची हुई हैं ..

कैसे कहते हो की अब ये दुनिया नहीं अच्छी ..
अभी यहाँ बुजुर्गों की कुछ दुआएं बची हुई हैं ..

कहो कैसे छोड़ दें तुम्हे याद करना हम अब..
अभी मेरी जिंदगी की कुछ साँसे बची हुई हैं ..

कैसे कहते हो इसे मात मेरी अभी से तुम ..
मोहरों की अभी मेरी कुछ चालें बची हुई हैं ..

नींद उसको भी परेशां करती है रात रात भर ..
पर पेट भरने को अभी कुछ कमाई बची हुई है ..

दिल हाथ लिए घूमता है मुसाहिब" अब भी..
लगता है तड़पने की कुछ हसरतें बची हुई है .. 

अमानत में खयानत कर भी जाते है ............

जो बिछड़ते हैं फिर कभी मिल भी जाते है ..
खुली आँखों के सपने सच हो भी जाते है ..

यूँ ही काट लेंगे जिंदगी इंतज़ार में सोचकर ..
जो उड़े थे बेखबर शाम तक लौट भी आते है ..

घर से निकलते हुए उसने सौ बार पलटकर देखा ..
सुना है मुड़कर देखने वाले वापस भी आते है ..

यूँ ही करते रहो मशक्कत ताउम्र इश्क में ..
एहसासों को जुबां तक आने में वक़्त लग भी जाते है ..

इतने बेखबर होकर किसी पे भरोसा न रखो ..
आजकल लोग अमानत में खयानत कर भी जाते है ..

"मुसाहिब" तेरे बीमार होने से कुछ तो हुआ ..
जिनकी राहें तकता था वो अब मिलने भी आते है ..

Monday 22 April 2013

मेरे ख्वाब तोड़ देते हैं .....

क्यूँ न मुझे वो मेरी हाल पे छोड़ देते हैं ..
नींद में भी आकर मेरे ख्वाब तोड़ देते हैं ..

कुछ तो दर्द का एहसास उसे भी करा दे ..
जो मोहब्बत में बेवजह वादे तोड़ देते हैं ..

किस किस को बताएं की दिल से न खेल ..
है खिलौना नहीं जिसे फिर से जोड़ देते हैं ..

कर सैय्याद से बगावत आशियाँ जो बनाया ..
बच्चे भी तो एक दिन आशियाँ छोड़ देते हैं ..

अब तो आलम ये है की देख भी नहीं सकते ..
वो आहट सुनते ही अपना रास्ता मोड़ देते हैं ..

दिखे मोहब्बत का दर्द भी उनकी ग़ज़लों में ..
अब वो अपने मक्ते में "मुसाहिब" जोड़ देते हैं ..

Thursday 18 April 2013

तू झूठा ही एक वादा कर ले ..

नफरत ही चाहे जादा कर ले ..
तू झूठा ही एक वादा कर ले ..

मोहब्बत का तो टूटा है भरम
तू इनायत का ही वादा कर ले ..

जो चाहे है दामन के दाग देखना ..
पैराहन को अपने सादा कर ले ..

फिर वो खुद ही टूट जायेंगे बाँहों में ..
बस मोहब्बत जां से जादा कर ले ..

ख्वाब बरसेंगे हो के सच बारिश की तरह ..
तड़प अपनी "मुसाहिब" जमीं से जादा कर ले ..

(पैराहन - कपडे , जादा - ज्यादा )

Wednesday 17 April 2013

करती है धुन परेशां मुझको साज़ से ..

कब तक रुके रहोगे रस्मो रिवाज़ से ..
पास खींच लाउंगा तुझको आवाज़ से ..

एक बार बोल दे जो तुझे वास्ता नहीं ..
ख्वाबों से भी मिटा दूँ तुझको आज से ..

हर सुर कटे हुए हैं हर ताल बेमज़ा ..
करती है धुन परेशां मुझको साज़ से ..

यूँ तो मोहब्बत में दिलबर हुआ खुदा ..
कैसे कहूँ खुदा मैं तुझको नाज़ से ..

वो करते रहे तगाफुल हम पाते रहे सज़ा ..
दुनिया लगे है ग़ाफिल "मुसाहिब" को आज से ..

Tuesday 16 April 2013

जो रूठा न कभी ..

वो साथी कहाँ मिला जो था रूठा न कभी ..
वो इन्सां कहाँ मिला जो था झूठा न कभी ..

किस बात पे कहें की ज़माने से लडूंगा ..
वो कसम कहाँ मिला जो था टुटा न कभी ..

आईना भी देर तक मुझे सह न सका 
वो शीशा कहाँ मिला जो था फुटा न कभी ..

इस सफ़र में कौन खुद को महफूज़ रख सका ..
वो काफिला कहाँ मिला जो था लुटा न कभी ..

किस से कहे "मुसाहिब"  दिल की दास्ताँ ..
वो साथ कहाँ मिला जो था छुटा न कभी ..

Tuesday 9 April 2013

सितारा है वो भी ..

वक़्त यादों में रो गुज़ारा है जो भी ..
इबादत के जैसे ही प्यारा है वो भी ..

दर्द कितना छुपा है पीछे हँसी के ..
हँस के हमने मगर गुज़ारा है वो भी ..

क्या हुआ जो वो सूरत से अच्छा नहीं ..
फिर भी माँ का सबसे दुलारा है वो भी ..

आज देखने भी कोई छत पे आया नहीं ..
टूटता ही सही मगर सितारा है वो भी ..

रखी शर्त उसने सितम की हमेशा ..
इश्क की आग में अब गंवारा है वो भी ..

पहुचेगी कब तक खुदा तक कहानी ..
देखना मुझको अब नज़ारा है वो भी ..

हर एक ना पे ऐसे न रूठो "मुसाहिब"..
पास आने का बस एक इशारा है वो भी ..

Monday 8 April 2013

गिरते गिरते संभलना सीख लेगा ..

वो खुद ही संभलकर चलना सीख लेगा ..
देखना गिरते गिरते संभलना सीख लेगा ..

यूँ ऊँगली पकड़ के क्या चलना सिखाना ..
छोड़ दो इस शहर में वो चलना सीख लेगा ..

जलने दो थोडा अगन में उसे भी ..
शमा की जलन में वो जलना सीख लेगा ..

बनाने दो तिनकों का एक घर उसे भी ..
वो खुद ही आशियाँ बदलना सीख लेगा ...

गाने दो जी भर के नगमें ग़मों के ..
हर शब्द फिर ग़ज़ल में ढ़लना सीख लेगा ..

लगाने दो दिल इस फरेबी जहां में ..
चैन खोते ही वो हाथ मलना सीख लेगा ...

सियासत से दुरी बना दो "मुसाहिब"..
वो बातों को जुबां से तलना सीख लेगा ..

Friday 5 April 2013

उसने मुड़कर ना देखा ...

इस सितमगर ज़माने में क्या कुछ ना देखा ..
आरज़ू थी वफा की वफ़ा ही ना देखा ..

वो कह कर गए कोई बेहतर मिलेगा ...
कभी कोई फिर उनके जैसा ना देखा ...

कहा था किसी ने लुटा दो ये हस्ती ..
बात जिसकी भी मानी फिर उसी को ना देखा ..

इतना दर्द -ऐ- जुबां है "मुसाहिब" ही होगा ...
सोचकर बस यही उसने मुड़कर ना देखा ...

दिल लगाये कहाँ ..

वफ़ा ढूढ़ते तुम भी आये कहाँ ...
हुस्न के खेल में दिल लगाये कहाँ ..

वो दिखा फिर वही छोड़ आये जहाँ ..
वो बैठा था नज़रें गडाये वहां ..

तेरा फ़लसफ़ा कुछ नया भी नही ..
बैठे हैं सब दिल  जलाये यहाँ .....

वो नज़रों की बातों के दिन ढल गए ...
नज़र सब फरेबी बनाये यहाँ ..

"मुसाहिब" चलो शाम ढलने लगी है ...
रात बातों में ही कट न जाये यहाँ  ...

Thursday 4 April 2013

चेहरे पे पहले चेहरा लगायें ...

सबने सोचा की इसपे भी पहरा लगायें  ...
चलो इसके भी सिर पे अब सहरा लगायें  ...

रंगों में भी अब मिलावट है इतनी ..
कहाँ मिल रहा वो जो गहरा लगायें ...

रख सके न हिफाज़त से साँसों को हम तो ...
तेरे हुस्न पे क्या हम पहरा लगायें ....

पूछा जो मैंने सियासत सिखा दे ..
कहा चेहरे पे पहले चेहरा लगायें  ...

घर से निकलने को है अब "मुसाहिब"..
 फिजाओं ने सोचा की कोहरा लगायें ...

Wednesday 3 April 2013

ढलती उमर सब सिखा जा रही है ....

जिंदगी भी सियासत किये जा रही है ..
कर के झूठे बहाने वफ़ा जा रही है ..

जहाँ बैठे थे बूंदों के प्यासे कभी से ...
वहीँ से ये बारिश मुह छुपा जा रही है ..

जो नुस्खे थे सीखे मनाने के हमने ..
उन्ही से वो हो के खफ़ा जा रही है ....

रखूं क्या हिफाजत से तुम ही बताओ ...
ज़िन्दगी जब ये साँसे लुटा जा रही है ...

अब कौन सा मर्ज़ मेरा करोगे ..
लुट कर दिल मेरा बेवफा जा रही है ...

"मुसाहिब" यहाँ पर कहाँ कोई अपना ...
ये ढलती उमर सब सिखा जा रही है ....

फूलों से घायल हुए हैं ...

आदाओं से जिनके सताए हुए हैं ....
उनकी ही नज़रों के कायल हुए है ...

जब चाहा जोड़ा जब चाहा तोडा ....
फिर भी उनके ही पावोँ के पायल हुए है ..

कहाँ ढूढ़ते हो ज़माने में उसको ..
वो कहाँ मिल सका जिसके हायल हुए है ...

रखते हो पावों को काटों से डरकर ...
"मुसाहिब" तो फूलों से घायल हुए हैं ...

हायल - स्वप्न, ख्वाब 

Tuesday 2 April 2013

जहाँ तू नज़र ना आता है ...

कहने को अब न वो मेरा न मैं उसका ...
पर छुप छुप के वो मेरे अह्सार चुरा जाता है ...

मतला तक तो मैं भी नहीं सोचता तेरे बारे में ...
मकता में न जाने क्यूँ तेरा ही नाम लिखा जाता है ..

दिल कहता है नज़रे चुराकर तू भी गुनाह कर ले ...
वो जगह नहीं मिली जहाँ तू नज़र ना आता है ...

"मुसाहिब" की बातें है सुनकर गौर न किया ,,,,
बात अगर अच्छी हो तो ओहदा नहीं देखा जाता है ..