Monday 23 September 2013

"मुसाहिब" दिल ही जलाया करते ..

तुम बेसबब याद न आया करते ..
हम  यूँ ही वक़्त न जाया  करते ..

जख्म हमको दिखाते तो शायद ..
मर्ज ज़माने से तो  अच्छा करते ..

रूख़ बदल लिया  बेतलब  उसने..
 कुछ  तो मुझपर  भरोसा रखते ..

हुस्न - ऐ -जमाल छुपाते  वो रहे ..
उनके जख्मो  पे भी बोसा  करते ..

जुल्फ का खुलना तो  बहाना   है ..
मुझे गैर नज़रों  से छुपाया करते  ..

काश दर्द भी जल जाता चरागों में .
"मुसाहिब" दिल ही जलाया करते ..

(जमाल - Beauty ,  बोसा - Kiss )

Sunday 22 September 2013

या ऱब मज़बूरी ऐसी भी क्या है तेरी ...

या ऱब मज़बूरी ऐसी भी क्या है तेरी ...
एक यकीं तो दिल बाक़ी रज़ा है तेरी ...

दर्द हद से ग़ुज़र गया पर साथ न छोड़ा ...
ज़िंदगी मुझसे इतनी ख़फा है मेरी...

नफ़रत की महफ़िल में दिल लगा बैठे ...
ज़िंदगी में बस एक ही खता है मेरी ...

ग़ज़ल में भी अश्कों को छुपा न सकेगा ...
"मुसाहिब" ताउम्र यही सजा है तेरी ...

Friday 20 September 2013

वक़्त और तुम

वक़्त और तुम कितने मिलते जुलते हो ..
वो भी न रहा मेरा तुम भी बदल गए ...

Wednesday 11 September 2013

हक़ीक़त कितनी भी हो इनमे ये सपना ही निकलता है ....

कुछ लोग समझते हैं ये दिल बेईमा ही निकलता है ...
टूटा है पर अब भी तेरे लिए अरमा ही निकलता है ...

परदे में ही रहने दो अब क़ातिल का मेरे नाम ...
उठता है जो परदा तो कोई अपना ही निकलता है ...

न जाने कैसे कहते हो कोई अपना नहीं मिलता ...
मिलता है जो कोई मुझसे मेरा मेहमा ही निकलता है ...

क्या सारे ज़माने के इंसान शैय्याद हो गए हैं ...
परिंदा कहीं कोई भी मिलता है सहमा ही निकलता है ...

“मुसाहिब” के हिस्से भी आएगी मोहब्बत की दास्तां ...
हक़ीक़त कितनी भी हो इनमे ये सपना ही निकलता है ....

Sunday 8 September 2013

इस बस्ती में इंसा अब नहीं रहता ...

जब मौसमों को बहारों का सबब नहीं रहता ...
फिर बहारों को भी खिलने का अदब नहीं रहता ...

यूँ तो दिल टूटने से कभी साँसे नहीं रुकती ...
पर इन साँसों का फिर कोई मतलब नहीं रहता ...

शाम होते ही तितलियाँ कितनी सहम जाती हैं....
लग रहा है इस बस्ती में इंसा अब नहीं रहता ...

असर तो होता है याद करने में तड़प के वरना ...
बेखुदी में दिल आजकल यूं ही बेसबब नहीं रहता ...

ग़ज़ल सुनकर लोगों के आँखों मे आँसू नहीं आए ...
लगता है मुशायरे मे आजकल मुसाहिब नहीं रहता ...

Thursday 5 September 2013

एक ख़त से मेरे घर पे कुछ खैर तो मिलेगा ..

मुझको न मिला तो किसी और को मिलेगा ..
कुछ ऐसा न चाहिए दिल के बगैर जो मिलेगा ..

किस यकीं से कहते हो पत्थर जो तूने फेंका ...
वो अपनों को नहीं किसी गैर को लगेगा ...

टुटा हुआ था दिल इसे बस्ती सा कर दिया ..
कोई नहीं है जिनका उन्हें एक ठौर तो मिलेगा ...

रहता है घर से दूर पर खबर लिखता रहता है ..
एक ख़त से मेरे घर पे कुछ खैर तो मिलेगा ..

लिख दे ग़ज़ल में अपनी हर दर्द -ऐ -दास्ताँ ..
कुछ तो सबक "मुसाहिब" किसी और को मिलेगा ..

Tuesday 3 September 2013

“मुसाहिब” साकी है गम का बस दर्द लिखता है ..

वो अगर अपना ठिकाना बदल लेंगे ...
हम भी रोने का बहाना बदल लेंगे ...

देखा है बच्चों के पर निकल आए है ...
अब वो अपना आशियाना बदल लेंगे ...

अगर वो याद आना छोड़ दे मुझको ...
हम भी अंदाज़ ऐ आशिक़ाना बदल लेंगे ...

बुजुर्गों का हाथ पकड़कर चलना नहीं आता ...
किसके बूते कहते हो की जमाना बदल लेंगे ...

ये मासूम हैं इन्हें सियासत से दूर ही रखना ...
मजहब नहीं बदलेगा अगर खिलौना बदल लेंगे ..

“मुसाहिब” साकी है गम का बस दर्द लिखता है ..
अंदाज़ कुछ तो बदलेगा अगर पैमाना बदल लेंगे ...