कुछ
लोग समझते हैं ये दिल बेईमा ही निकलता है ...
टूटा
है पर अब भी तेरे लिए अरमा ही निकलता है ...
परदे में ही रहने दो अब क़ातिल
का मेरे नाम ...
उठता है जो परदा तो कोई
अपना ही निकलता है ...
न जाने कैसे कहते हो कोई
अपना नहीं मिलता ...
मिलता है जो कोई मुझसे मेरा
मेहमा ही निकलता है ...
क्या सारे ज़माने के इंसान शैय्याद
हो गए हैं ...
परिंदा कहीं कोई भी मिलता
है सहमा ही निकलता है ...
“मुसाहिब”
के हिस्से भी आएगी मोहब्बत की दास्तां ...
हक़ीक़त
कितनी भी हो इनमे ये सपना ही निकलता है ....
No comments:
Post a Comment