Sunday 8 September 2013

इस बस्ती में इंसा अब नहीं रहता ...

जब मौसमों को बहारों का सबब नहीं रहता ...
फिर बहारों को भी खिलने का अदब नहीं रहता ...

यूँ तो दिल टूटने से कभी साँसे नहीं रुकती ...
पर इन साँसों का फिर कोई मतलब नहीं रहता ...

शाम होते ही तितलियाँ कितनी सहम जाती हैं....
लग रहा है इस बस्ती में इंसा अब नहीं रहता ...

असर तो होता है याद करने में तड़प के वरना ...
बेखुदी में दिल आजकल यूं ही बेसबब नहीं रहता ...

ग़ज़ल सुनकर लोगों के आँखों मे आँसू नहीं आए ...
लगता है मुशायरे मे आजकल मुसाहिब नहीं रहता ...

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