Sunday 22 September 2013

या ऱब मज़बूरी ऐसी भी क्या है तेरी ...

या ऱब मज़बूरी ऐसी भी क्या है तेरी ...
एक यकीं तो दिल बाक़ी रज़ा है तेरी ...

दर्द हद से ग़ुज़र गया पर साथ न छोड़ा ...
ज़िंदगी मुझसे इतनी ख़फा है मेरी...

नफ़रत की महफ़िल में दिल लगा बैठे ...
ज़िंदगी में बस एक ही खता है मेरी ...

ग़ज़ल में भी अश्कों को छुपा न सकेगा ...
"मुसाहिब" ताउम्र यही सजा है तेरी ...

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