Saturday, 30 March 2013

बस्तियां जलीं होगी ...

यूँ ही रोता नहीं है आसमां जार जार होकर ...
फिर किसी आशिक को बेवफाई मिली होगी ...

अब जो शहर में उठता है धुआं वो चूल्हे का नहीं है ...
फिर सियासत की आग में बस्तियां जलीं होगी ...

ऐ बागबां अब तो बाज़ आ बेचने से इन्हें ..
ये कलियाँ तो नादान है कल फिर से खिली होगी ...

"मुसाहिब" तो है एक मोहरा शतरंज-ऐ -हुकूमत का ..
ये बहकी जो चाल है, गैरों ने चली होगी ...

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