Thursday 7 March 2013

फर्क बस तजुर्बे का है ...

कोई बंज़र में भी कश्ती चला लेता है ...
कोई समंदर में भी कश्ती डूबा देता है ...
फर्क बस तजुर्बे का है मेरे दोस्त ..
कोई अपनों को लुटा देता है कोई अपनों पे लुटा देता है ...
ये खुदाई है इसे आसाँ न समझ ..
कभी रोते को हँसा देता है कभी हँसते को रुला देता है ..
ये ज़माना किसी का न हुआ मेरा भी नहीं होगा ..
ये रात को सूरज भुला देता है दिन में चाँद भुला देता है ..
ये अच्छा ही किया तुमने तुम साथ न चले ...
तुम सह नहीं पाते ये काँटा चुभ चुभ के रुला देता है ..
जाओ वही जाओ तुम सब जहाँ जन्नत सी दुनिया है ..
मुझे भायी नहीं जन्नत दोज़ख का डर रुला देता है ..

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