Tuesday 20 November 2012

जागरण


है प्रभात सो रहा  अंगड़ाईयां ले रात की ,
ये कर्म की रही नहीं यह कौम है बस बात की
हर कोई किसी से कह रहा है जाग अब,
पर  अंगड़ाईयां छूटी कहाँ है दुर्भाग्य की,  है प्रभात सो रहा  अंगड़ाईयां ले रात की |
जागने की चाह सबको पर वेदना सोयी हुई,
हस रही है क्रूरता और संवेदना रोती हुई,
सब रो रहे किस्मत पे अपने हाय ये फूटी हुई,
एक और रात भूखे गुजारे, रोटी बहुत महँगी हुई |
हर तरफ रोती है सूरत यह बात है अब आम की,
आजाद है ये देश पर जिंदगी है गुलाम की,
जी काम में लगता कहाँ अब आदतें आराम की,
हंस रहा राजा यहाँ और हर तरफ है चीख बस आवाम की
 है प्रभात सो रहा  अंगड़ाईयां ले रात की ,
ये धर्म की रही नहीं ये कौम है बस जात की,
हर कोई किसी से कह रहा तू और है तू कोई और है,
पर ये जानता कोई नहीं ,
सब जात हैं इंसान कीहै प्रभात सो रहा अंगड़ाईयां ले रात की |

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