किसी मजहब किसी सरहद में बंधी नहीं पाकीजगी तेरी ,
की जो खुसबू किसी मंदिर से वही मस्जिद से भी आती है,
की जब तक याद मजहब था मेरे ख्वाबों पर भी थी बंदिश,
जब मैं भूल गया मजहब अमन की नींद आती है ।
किसी दोराहे पर खड़े होकर न खुद से जंग लड़ते है,
न खुद को राम कहते है न अल्लाह ही कहा करते,
वो खुद को इस नयी दुनिया का एक इंसान कहते है ,
वो मंदिर से गुजरते है वो मस्जिद पर भी रुकते है ।
किसी वेदों किसी कलमो में नहीं बंधी मेहरबानियाँ तेरी,
की जो शक्ति पुराण से वही कुरान से भी आती है |
न मौला ही कभी खुश है फिर क्यूँ उन्हें चादर चढाते है,
न राम ही खुश है फिर क्यूँ उसी की माला जपते हैं,
ये धरती ही बनेगी नूर- ए -जन्नत अगर मानो,
रहेगी हर तरफ खुशियाँ गर सही इंसान बनते हैं।
किसी मजहब किसी सरहद में बंधी नहीं पाकीजगी तेरी ,
की जो खुसबू किसी मंदिर से वही मस्जिद से भी आती है |
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